तिरे बग़ैर अजब बज़्म-ए-दिल का आलम है
चराग़ सैंकड़ों जलते हैं रौशनी कम है
जो जी रहे हैं उन्ही के लिए हर इक ग़म है
ज़हे-नसीब कि फूलों की ज़िंदगी कम है
क़फ़स से आए चमन में तो बस यही देखा
बहार कहते हैं जिस को ख़िज़ाँ का आलम है
ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो यारब
कुछ आज मस्त निगाहों की बे-रुख़ी कम है
बनाए हैं इसी शबनम ने सैंकड़ों दरिया
नहीं मलाल जो दरिया हरीफ़-ए-शबनम है
कहा ये दिल ने सुनी गुफ़्तुगू जो नासेह की
मुबालग़ा है बहुत इस में वाक़िआ कम है
बहार आए चमन में ये इंतिज़ार न देख
'शकील' अपने जुनूँ की बहार क्या कम है
ग़ज़ल
तिरे बग़ैर अजब बज़्म-ए-दिल का आलम है
शकील बदायुनी