तिरे अबरू पे बल आया तो होता
ज़रा ग़ैरों को धमकाया तो होता
बजाए फ़र्श मैं आँखें बिछाता
तू अपने वा'दे पर आया तो होता
समझते फ़र्श पर हम चादर-ए-गुल
तिरा ऐ रश्क-ए-गुल साया तो होता
शिकायत आएगी ऐ जज़्ब-ए-उल्फ़त
जनाज़े पर उसे लाया तो होता
किया था गर फ़लक तू ने सियह-बख़्त
तो मैं उस माह का साया तो होता
न होता दर्द-ए-सर फिर तुम को 'आजिज़'
सर उस के दर पे टकराया तो होता
ग़ज़ल
तिरे अबरू पे बल आया तो होता
पीर शेर मोहम्मद आजिज़