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तिरा ख़याल अगर जुज़्व-ए-ज़िंदगी न रहे | शाही शायरी
tera KHayal agar juzw-e-zindagi na rahe

ग़ज़ल

तिरा ख़याल अगर जुज़्व-ए-ज़िंदगी न रहे

महमूद गज़नी

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तिरा ख़याल अगर जुज़्व-ए-ज़िंदगी न रहे
जहाँ में मेरे लिए कोई दिलकशी न रहे

मैं आ गया हूँ वहाँ तक तिरी तमन्ना में
जहाँ से कोई भी इम्कान-ए-वापसी न रहे

तू ठीक कहता है ऐ दोस्त ठीक कहता है
कि हम ही क़ाबिल-ए-तज्दीद-ए-दोस्ती न रहे

हुज़ूर याद है मैदान-ए-हश्र का वादा
कहीं वहाँ भी मिरी आँख ढूँढती न रहे

मिरा तो ख़ैर अज़ल ही से ग़म मुक़द्दर है
तिरी निगाह की पहचान बे-रुख़ी न रहे

तू इस तरह से लिपट जा चराग़ की लौ से
कि बाद-ए-मर्ग यहाँ तेरी राख भी न रहे

किसी के हिज्र का मौसम अज़ाब है 'गज़नी'
कभी कभी तो मैं कहता हूँ ज़िंदगी न रहे