तिरा ही रूप नज़र आए जा-ब-जा मुझ को
जो हो सके ये तमाशा न तू दिखा मुझ को
कभी तो कोई फ़लक से उतर के पास आए
कभी तो डसने से बाज़ आए फ़ासला मुझ को
तलाश करते हो फूलों में कैसे पागल हो
उड़ा के ले भी गई सुब्ह की हवा मुझ को
किसे ख़बर कि सदा किस तरफ़ से आएगी
कहाँ से आ के उठाएगा क़ाफ़िला मुझ को
मिरा ही नक़्श-ए-क़दम था मिरे तआक़ुब में
वगरना लाख बुलाती तिरी सदा मुझ को
समेटता रहा ख़ुद को मैं उम्र-भर लेकिन
बिखेरता रहा शबनम का सिलसिला मुझ को
घुली जो रात की ख़ुश्बू तो साज़िशी जागे
दहकती आँखों ने घेरे में ले लिया मुझ को
ठहर सकी न अगर चाँदनी तो क्या ग़म है
यही बहुत है कि तू याद आ गया मुझ को

ग़ज़ल
तिरा ही रूप नज़र आए जा-ब-जा मुझ को
वज़ीर आग़ा