तिरा बुलबुल हूँ तुझ गुल की क़सम है
बिरह सूँ मस्त हूँ मुल की क़सम है
रक़ीब-ए-रू-सियह खावेगा अब मार
मुझे तुझ काले काकुल की क़सम है
लिए दिल फिरते हैं दौर ज़ुलफ़ में
मुझे उस के तसलसुल की क़सम है
न कर तूँ बुल-हवस ऊपर तलत्तुफ़
तिरे दिल के ताम्मुल की क़सम है
ख़ुदा आख़िर करेगा ख़ुश मिरा दिल
मुझे अपने तवक्कुल की क़सम है
नहीं होता हूँ मिलने सें कभी सेर
तिरे मन के तफ़ज़्ज़ुल की क़सम है
न रह ग़ाफ़िल तूँ अपने 'मुबतला' सूँ
तुझे तेरे तग़ाफ़ुल की क़सम है

ग़ज़ल
तिरा बुलबुल हूँ तुझ गुल की क़सम है
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला