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तिरा आना गर ऐ रश्क-ए-मसीहा हो नहीं सकता | शाही शायरी
tera aana gar ai rashk-e-masiha ho nahin sakta

ग़ज़ल

तिरा आना गर ऐ रश्क-ए-मसीहा हो नहीं सकता

क़ुर्बान अली सालिक बेग

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तिरा आना गर ऐ रश्क-ए-मसीहा हो नहीं सकता
तो बीमार-ए-मोहब्बत जानो अच्छा हो नहीं सकता

तिरे कुश्ते को ज़िंदा सब करें ये ग़ैर-मुमकिन है
अगर चाहे हर इक होना मसीहा हो नहीं सकता

तिरी उल्फ़त में वो कुश्ता हूँ गर ईसा भी आ जाए
वो ज़िंदा कर नहीं सकता मैं ज़िंदा हो नहीं सकता

मैं दिल में रू-ब-रू तेरे बहुत कुछ सोच आया था
मगर हैबत से इज़्हार-ए-तमन्ना हो नहीं सकता

जलाओ जितना जी चाहे सताओ जितना जी चाहे
करूँ शिकवा किसी से तेरा ऐसा हो नहीं सकता

है तेरे वस्ल की उम्मीद पर ये ज़िंदगी मेरी
बता दो हो भी सकता है भला या हो नहीं सकता

ज़माना छोड़ दे तो छोड़ दे पर्वा नहीं 'कुर्बाँ'
मोहब्बत छोड़ दूँ प्यारे कि ऐसा हो नहीं सकता