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तिलिस्म-ए-शब से बहुत बे-ख़बर चले आए | शाही शायरी
tilsim-e-shab se bahut be-KHabar chale aae

ग़ज़ल

तिलिस्म-ए-शब से बहुत बे-ख़बर चले आए

अताउर्रहमान क़ाज़ी

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तिलिस्म-ए-शब से बहुत बे-ख़बर चले आए
ये क्या कि शाम ढले यार घर चले आए

कशिश कुछ ऐसी थी मिट्टी की बास में हम लोग
क़ज़ा का दाम बिछा था मगर चले आए

अजब है क्या जो मिले वो हमें दोबारा भी
हम एक ख़्वाब में बार-ए-दिगर चले आए

ख़िराम करती हवाओं पे तैरते नश्शे
चला वो शोख़ जिधर को उधर चले आए

खुली जो आँख तो वीरान था हर इक मंज़र
ढली जो रात तो क्या क्या न डर चले आए

वो आहटें भी कहीं खो गईं हमेशा में
हमारी सम्त भटकते खंडर चले आए

हम अहल-ए-शौक़ को सहरा की वुसअतों में 'अता'
असीर करने को दीवार-ओ-दर चले आए