तिलिस्म-ए-ख़्वाब से मेरा बदन पत्थर नहीं होता
मिरी जब आँख खुलती है मैं बिस्तर पर नहीं होता
यक़ीं आता नहीं तो मुझ को या महताब को देखो
कि रात उस की भी कट जाती है जिस का घर नहीं होता
जिधर देखूँ उधर ही देखता रहता हूँ पहरों तक
मुझे अतराफ़ का ख़ाली वरक़ अज़बर नहीं होता
खजूरें और पानी ले के आगे बढ़ता जाता हूँ
मगर ये कोह-ए-इम्काँ है कि मुझ से सर नहीं होता
कम-अज़-कम मुझ से दुनिया को शिकायत तो नहीं होगी
मैं इस जैसा ही बन जाऊँ अगर बेहतर नहीं होता
जवाज़ अपना बनाता हूँ किसी नादीदा ख़ित्ते में
जहाँ मेरी ज़रूरत हो वहाँ अक्सर नहीं होता
बहाता हूँ कहीं अपने सिफ़ाल-ए-बे-मुरक्कब को
मैं गिर्ये के दिनों में चाक-ए-दुनिया पर नहीं होता
गिला तो ख़ैर क्या होगा बस इतना तुम से कहना है
तुम्हारी उम्र में कोई सितम-परवर नहीं होता
तो फिर यूँ है कि मैं ने उस को चाहा ही नहीं 'ताबिश'
अगर उस की शबाहत का गुमाँ मुझ पर नहीं होता
ग़ज़ल
तिलिस्म-ए-ख़्वाब से मेरा बदन पत्थर नहीं होता
अब्बास ताबिश