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तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साक़ी कर लूँ | शाही शायरी
tis din ke liye tark-e-mai-o-saqi kar lun

ग़ज़ल

तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साक़ी कर लूँ

शिबली नोमानी

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तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साक़ी कर लूँ
वाइज़-ए-सादा को रोज़ों में तो राज़ी कर लूँ

फेंक देने की कोई चीज़ नहीं फ़ज़्ल-ओ-कमाल
वर्ना हासिद तिरी ख़ातिर से मैं ये भी कर लूँ

ऐ नकीरैन क़यामत ही पे रक्खो पुर्सिश
मैं ज़रा उम्र-ए-गुज़िश्ता की तलाफ़ी कर लूँ

कुछ तो हो चारा-ए-ग़म बात तो यक हो जाए
तुम ख़फ़ा हो तो अजल ही को मैं राज़ी कर लूँ

और फिर किस को पसंद आएगा वीराना-ए-दिल
ग़म से माना भी कि इस घर को मैं ख़ाली कर लूँ

जौर-ए-गर्दूं से जो मरने की भी फ़ुर्सत मिल जाए
इम्तिहान-ए-दम-ए-जाँ-परवर-ए-ईसी कर लूँ

दिल ही मिलता नहीं सिफ़लों से वगर्ना 'शिबली'
ख़ूब गुज़रे फ़लक-ए-दूँ से जो यारी कर लूँ