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तीर चिल्ले पे न आना कि ख़ता हो जाना | शाही शायरी
tir chille pe na aana ki KHata ho jaana

ग़ज़ल

तीर चिल्ले पे न आना कि ख़ता हो जाना

हफ़ीज़ जालंधरी

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तीर चिल्ले पे न आना कि ख़ता हो जाना
लब तक आते हुए शिकवे का दुआ हो जाना

याद है उस बुत-ए-काफ़िर का ख़फ़ा हो जाना
और मिरा भूल के माइल-ब-दुआ हो जाना

हैरत-अंगेज़ है नक़्काश-ए-अज़ल के हाथों
मेरी तस्वीर का तस्वीर-ए-फ़ना हो जाना

दस्त-ए-तक़दीर में शमशीर-ए-जफ़ा देना है
ख़ुद-ब-ख़ुद बंदा-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा हो जाना

उस की उफ़्ताद पे ख़ुर्शीद की रिफ़अत क़ुर्बां
जिस को भाया तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हो जाना

रौनक़-ए-बज़्म है शेवन से तो शेवन ही सही
हम-सफ़ीरान-ए-चमन फिर न ख़फ़ा हो जाना

दावर-ए-हश्र का इंसाफ़ इशारे उन के
बस यही है किसी बंदे का ख़ुदा हो जाना