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तीर बरसे कभी ख़ंजर आए | शाही शायरी
tir barse kabhi KHanjar aae

ग़ज़ल

तीर बरसे कभी ख़ंजर आए

अंजना संधीर

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तीर बरसे कभी ख़ंजर आए
ये मक़ामात भी अक्सर आए

शहर में आग लगी है अपने
जो भी आए वो सँभल कर आए

फिर तबाही की तरफ़ है दुनिया
फिर ज़रूरत है पयम्बर आए

वो तो रहज़न के भी रहज़न निकले
हम तो समझे थे कि रहबर आए

शहर में जब कोई हंगामा हुआ
लोग कुछ भेस बदल कर आए

आप चुप रहे के भले बन बैठे
सारे इल्ज़ाम हमीं पर आए