ठिकाना है कहीं जाएँ कहाँ नाचार बैठे हैं
इजाज़त जब नहीं दर की पस-ए-दीवार बैठे हैं
ये मतलब है कि महफ़िल में मनाए और मन जाएँ
वो मेरे छेड़ने को ग़ैर से बेज़ार बैठे हैं
ख़रीदार आ रहे हैं हर तरफ़ से नक़्द-ए-जाँ ले कर
वो यूसुफ़ बन के बिकने को सर-ए-बाज़ार बैठे हैं
अचानक ले न लूँ बोसा ये खटका उन के दिल में है
मिरे पहलू में बैठे हैं मगर होश्यार बैठे हैं
तुम्हारे आशिक़ों में बे-क़रारी क्या ही फैली है
जिधर देखो जिगर थामे हुए दो-चार बैठे हैं
क़यामत है सितम मुर्दे पे भी उन को गवारा है
मिरा लाशा उठाने के लिए अग़्यार बैठे हैं
लब-ए-बाम आ के दिखला वो तमाशा तूर का तुम भी
बड़े मौक़े से दर पर तालिब-ए-दीदार बैठे हैं
'असर' क्यूँ-कर न जानूँ उस के दर को क़िब्ला-ए-आलम
उसी जानिब कई रुख़ काफ़िर ओ दीं-दार बैठे हैं
ग़ज़ल
ठिकाना है कहीं जाएँ कहाँ नाचार बैठे हैं
इम्दाद इमाम असर