थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
ये बिछड़ना है बड़ी सख़्त सज़ा उस के लिए
अब कोई सिलसिला-ए-तर्क-ओ-तलब ही न रहा
आँख में एक भी मंज़र न रुका उस के लिए
उस के ख़्वाबों को न दे मौसम-ए-ताबीर मिरा
कोई पैग़ाम न ले जाए सबा उस के लिए
हर्फ़ को लफ़्ज़ न कर लफ़्ज़ को इज़हार न दे
कोई तस्वीर मुकम्मल न बना उस के लिए
मैं उसे भूल भी जाऊँ मगर ऐ बे-ख़बरी
मेरी चुप उस के लिए मेरी नवा उस के लिए
'रम्ज़' दे जाए तो क्या रंग कोई मेरा लहू
'रम्ज़' पिस जाए तो किया बर्ग-ए-हिना उस के लिए
ग़ज़ल
थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
मोहम्मद अहमद रम्ज़