थम गया दर्द उजाला हुआ तन्हाई में
बर्क़ चमकी है कहीं रात की गहराई में
बाग़ का बाग़ लहू रंग हुआ जाता है
वक़्त मसरूफ़ है कैसी चमन-आराई में
शहर वीरान हुए बहर बयाबान हुए
ख़ाक उड़ती है दर ओ दश्त की पहनाई में
एक लम्हे में बिखर जाता है ताना-बाना
और फिर उम्र गुज़र जाती है यकजाई में
उस तमाशे में नहीं देखने वाला कोई
इस तमाशे को जो बरपा है तमाशाई में
ग़ज़ल
थम गया दर्द उजाला हुआ तन्हाई में
अहमद मुश्ताक़