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थकी हुई मामता की क़ीमत लगा रहे हैं | शाही शायरी
thaki hui mamta ki qimat laga rahe hain

ग़ज़ल

थकी हुई मामता की क़ीमत लगा रहे हैं

मेराज फ़ैज़ाबादी

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थकी हुई मामता की क़ीमत लगा रहे हैं
अमीर बेटे दुआ की क़ीमत लगा रहे हैं

मैं जिन को उँगली पकड़ के चलना सिखा चुका हूँ
वो आज मेरे असा की क़ीमत लगा रहे हैं

मिरी ज़रूरत ने फ़न को नीलाम कर दिया है
तो लोग मेरी अना की क़ीमत लगा रहे हैं

मैं आँधियों से मुसालहत कैसे कर सकूँगा
चराग़ मेरे हवा की क़ीमत लगा रहे हैं

यहाँ पे 'मेराज' तेरे लफ़्ज़ों की आबरू क्या
ये लोग बाँग-ए-दरा की क़ीमत लगा रहे हैं