थकन का बोझ बदन से उतारते हैं हम
ये शाम और कहीं पर गुज़ारते हैं हम
क़दम ज़मीन पे रक्खे हमें ज़माना हुआ
सो आसमान से ख़ुद को उतारते हैं हम
हमारी रूह का हिस्सा हमारे आँसू हैं
इन्हें भी शौक़-ए-अज़ीयत पे वारते हैं हम
हमारी आँख से नींदें उड़ाने लगता है
जिसे भी ख़्वाब समझ कर पुकारते हैं हम
हम अपने जिस्म की पोशाक को बदलते हैं
नया अब और कोई रूप धारते हैं हम
ग़ज़ल
थकन का बोझ बदन से उतारते हैं हम
रम्ज़ी असीम