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ठहरे तो कहाँ ठहरे आख़िर मिरी बीनाई | शाही शायरी
Thahre to kahan Thahre aaKHir meri binai

ग़ज़ल

ठहरे तो कहाँ ठहरे आख़िर मिरी बीनाई

असरारुल हक़ असरार

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ठहरे तो कहाँ ठहरे आख़िर मिरी बीनाई
हर शख़्स तमाशा है हर शख़्स तमाशाई

ये हुस्न का धोका भी दिल के लिए काफ़ी था
छूने के लिए कब थी महताब की ऊँचाई

आईने की हाजत से इंकार नहीं लेकिन
इस दर्जा न था पहले दस्तूर-ए-ख़ुद-आराई

सरमाया-ए-दिल आख़िर और इस के सिवा क्या है
हर दर्द से रिश्ता है हर ग़म से शनासाई

पत्थर सा हटे दिल से कुछ मुझ को भी कहने दो
गो तल्ख़ तो गुज़रेगी तुम को मिरी सच्चाई

शिकवा न करें हम भी भरपूर तवज्जोह का
देखा न करो तुम भी हर ज़ख़्म की गहराई

दुनिया से निराला है 'असरार' चलन अपना
तन्हाई में महफ़िल है महफ़िल में है तन्हाई