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ठहरना भूल गई हैं लहू से तर आँखें | शाही शायरी
Thaharna bhul gai hain lahu se tar aankhen

ग़ज़ल

ठहरना भूल गई हैं लहू से तर आँखें

ख़ान रिज़वान

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ठहरना भूल गई हैं लहू से तर आँखें
भटकती रहती हैं दिन रात दर-ब-दर आँखें

वजूद मेरा कहीं खो न जाए बिन तेरे
रहेंगी यूँ ही तिरे साथ उम्र भर आँखें

तुम अपनी आँखों को नज़्ज़ारा-ए-जहाँ बख़्शो
मिरी तो घूमती रहती हैं रेत पर आँखें

तिलिस्म-ख़ाना-ए-हैरत है एक पुतली में
दिखाती हैं मुझे क्या क्या ये मुख़्तसर आँखें

तुम्हारे वा'दे पे ऐसा यक़ीन है दिल को
कभी हैं दर पे कभी वक़्फ़-ए-रहगुज़र आँखें

तिरी नज़र के तआ'क़ुब में है नज़र मेरी
तिरी नज़र है जिधर हैं मिरी उधर आँखें

ये ख़द्द-ओ-ख़ाल ये गेसू ये सूरत-ए-ज़ेबा
सभी का हुस्न है अपनी जगह मगर आँखें