था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
जल्लाद मेहरबान हुआ क्या सबब हुआ
अफ़सोस कुछ न मेरी रिहाई का ढब हुआ
छूटा उधर क़फ़स से इधर मैं तलब हुआ
तशरीफ़ लाए आप जो मैं जाँ-ब-लब हुआ
उस वक़्त के भी आने का मुझ को अजब हुआ
निकलेगी अब न हसरत-ए-क़त्ल ऐ निगाह-ए-यास
क़ातिल को रहम आ गया मुझ पर ग़ज़ब हुआ
हो जाएगा कुछ और ही रंग अहल-ए-हश्र का
क़ातिल से ख़ूँ-बहा जो हमारा तलब हुआ
शायद बढाईं यार ने मन्नत की बेड़ियाँ
अब की मुझे जुनूँ न हुआ क्या सबब हुआ
पिन्हाँ तमाम ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र-ओ-सितम हुई
तालेअ' जूँही वो मेहर-ए-सिपहर-ए-अरब हुआ
हम डूब जाएँगे अरक़-ए-इंफ़िआ'ल में
आमाल-नामा हश्र में जिस दम तलब हुआ
इतना तो जज़्ब-ए-दिल ने दिखाया मुझे असर
चैन उस को भी न आया मैं बेताब जब हुआ
रोते थे अक़्ल-ओ-होश ही को हम तो इश्क़ में
लो अब तो दिल से सब्र भी रुख़्सत-तलब हुआ
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
किस दिन बहार आई मैं दीवाना कब हुआ
शादी शब-ए-विसाल की मातम हुई मुझे
हंगाम-ए-सुब्ह-ए-यार जो रुख़्सत-तलब हुआ
बोसे दिखा दिखा के हमें ले रहा है ये
क्यूँ इतना बे-लिहाज़ तिरा ख़ाल-ए-लब हुआ
क्या जान कर मलाल दिए कब का था ग़ुबार
किस रोज़ आसमाँ से मैं राहत-तलब हुआ
दुनिया में ऐ 'क़लक़' जो पुर-अरमान हम रहे
नाशाद ना-मुराद हमारा लक़ब हुआ
ग़ज़ल
था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
अरशद अली ख़ान क़लक़