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था पहला सफ़र उस की रिफ़ाक़त भी नई थी | शाही शायरी
tha pahla safar uski rifaqat bhi nai thi

ग़ज़ल

था पहला सफ़र उस की रिफ़ाक़त भी नई थी

फ़रहत नदीम हुमायूँ

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था पहला सफ़र उस की रिफ़ाक़त भी नई थी
रस्ते भी कठिन और मसाफ़त भी नई थी

दिल था कि किसी तौर भी क़ाबू में नहीं था
रह रह के धड़कने की अलामत भी नई थी

जब उस ने कहा था कि मुझे इश्क़ है तुम से
आँखों में जो आई थी वो हैरत भी नई थी

सदियों के तअल्लुक़ का गुमाँ होने लगा था
जब कि मिरी उस शख़्स से निस्बत भी नई थी

वाक़िफ़ भी नहीं था मैं किसी सूद-ओ-ज़ियाँ से
उस इश्क़ के सौदे में शिराकत भी नई थी

ख़्वाबों के बिखर जाने का धड़का भी लगा था
बे-दारी-ए-शब की मुझे आदत भी नई थी

ताबीर कहाँ ढूँडने जातीं मिरी आँखें
उन को तो किसी ख़्वाब की ज़हमत भी नई थी

दिल वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-मोहब्बत भी नहीं था
दुनिया के रिवाजों से बग़ावत भी नई थी

फिर मैं कि किसी नशे का आदी भी नहीं था
और मेरे लिए वस्ल की लज़्ज़त भी नई थी

यूँ कार-ए-जुनूँ करना ख़िरद-मंदों में रह कर
जो डाली थी तुम ने वो रिवायत भी नई थी