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था मैं आख़िर उसी मौसम की फ़ज़ा में पहले | शाही शायरी
tha main aaKHir usi mausam ki faza mein pahle

ग़ज़ल

था मैं आख़िर उसी मौसम की फ़ज़ा में पहले

महशर बदायुनी

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था मैं आख़िर उसी मौसम की फ़ज़ा में पहले
इस क़दर सोज़ न था मेरी नवा में पहले

है अगर उस की ये हसरत कि उसे सब देखें
शाहिद-ए-चर्ख़ हो रू-पोश घटा में पहले

ख़ाक-पोशों के बदन देर में लौ देते हैं
आग लगती है किसी नर्म क़बा में पहले

होंट सीना भी है अब फ़र्ज़ चलो ये भी सही
ऐसी शर्तें न थीं आदाब-ए-वफ़ा में पहले

अहल-ए-फ़न उस को न भूलें कि दिल ओ जाँ की तपिश
हर्फ़ में ब'अद को आती है सदा में पहले

मेरे अर्सा-गह-ए-तक़दीर में आने वालो
दिन गुज़ारो किसी आशोब-सरा में पहले

मेरे सहरा में तुम आए तो हो नाज़ुक-नफ़सो
साँस भी ली है कभी ऐसी हवा में पहले