तेज़-रौ पानी की तीखी धार पर बहते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछड़े हुए
अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों में फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए
अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात दिन
सुब्ह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए
अन-गिनत चेहरों का बहर-ए-बे-कराँ है और मैं
मुद्दतें गुज़रीं हैं अपने-आप को देखे हुए
किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है इन्हें
ये ख़िज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के बन महके हुए
काट में बिजली से तीखी बाल से बारीक-तर
ज़िंदगी गुज़री है इस तलवार पर चलते हुए
ग़ज़ल
तेज़-रौ पानी की तीखी धार पर बहते हुए
नश्तर ख़ानक़ाही