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तेरी ये ज़ुल्फ़ें नहीं तेरे रुख़-ए-रौशन के पास | शाही शायरी
teri ye zulfen nahin tere ruKH-e-raushan ke pas

ग़ज़ल

तेरी ये ज़ुल्फ़ें नहीं तेरे रुख़-ए-रौशन के पास

मुर्ली धर शाद

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तेरी ये ज़ुल्फ़ें नहीं तेरे रुख़-ए-रौशन के पास
अब्र के दो टुकड़े उठ कर आए हैं गुलशन के पास

क्यूँ ज़मीं हिलने लगी है क्यूँ परेशाँ रूह है
कौन घबरा के चला आया मिरे मदफ़न के पास

खींचना जज़्ब-ए-मोहब्बत उस का दामन देख कर
सर-निगूँ बैठा न हो फ़ित्ना कोई दामन के पास

फिर तो ढूँडा भी नहीं मिलता कोई मुर्ग़-ए-चमन
घर अगर सय्याद का होता किसी गुलशन के पास

कौन देता है हमारे दिल को ये तर्ग़ीब-ए-नेक
रहनुमा बैठा हुआ है क्या कोई रहज़न के पास

मैं तो समझा था कि अब छूटा ग़म-ओ-आलाम से
तेग़ उस की रुक गई आ कर मिरी गर्दन के पास

बज़्म-ए-दुश्मन में नया फ़ित्ना कोई उठने को था
ख़ैर गुज़री आप आ बैठे क़यामत बन के पास

'शाद' अब दिल का तुम्हारे हाथ आना है मुहाल
वो मगन बैठा हुआ होगा किसी पुर-फ़न के पास