तेरी यादों के के हसीं पल के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कश्कोल में इस कल के सिवा कुछ भी नहीं
मैं ही पागल था वफ़ा ढूँड रहा था इन में
तेरी आँखों में तो काजल के सिवा कुछ भी नहीं
कितने ही ख़्वाब-ए-मसर्रत का नगर थीं पहले
अब तो आँखें मिरी बादल के सिवा कुछ भी नहीं
बन के सुक़रात जियो तजरबा अपना है यही
ज़िंदगी ज़हर-ए-हलाहल के सिवा कुछ भी नहीं
बढ़ती जाती हैं मिरी वहशतें हर दिन 'मेराज'
ऐसा लगता है मैं पागल के सिवा कुछ भी नहीं
ग़ज़ल
तेरी यादों के के हसीं पल के सिवा कुछ भी नहीं
मैराज नक़वी