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तेरी ख़्वाहिश न जब ज़ियादा थी | शाही शायरी
teri KHwahish na jab ziyaada thi

ग़ज़ल

तेरी ख़्वाहिश न जब ज़ियादा थी

नबील अहमद नबील

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तेरी ख़्वाहिश न जब ज़ियादा थी
ज़िंदगी जैसे बे-लिबादा थी

इस लिए मुझ को मिल गई मंज़िल
मेरी ख़्वाहिश मिरा इरादा थी

एक तितली जले परों वाली
बस वही मेरा ख़ानवादा थी

मैं ने देखा है वो नगर भी जहाँ
रौशनी कम नज़र ज़ियादा थी

चल के इक उम्र मुझ पे राज़ खुला
मेरी मंज़िल ही मेरा जादा थी

जिस में रहते थे सब मोहब्बत से
वो हवेली भी क्या कुशादा थी

दूर था इस लिए महाज़ से मैं
फ़ौज मेरी कि पा-पियादा थी

संग था या कि रास्ते में 'नबील'
कोई दीवार ईस्तादा थी