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तेरी भँवों की तेग़ के जो रू-ब-रू हुआ | शाही शायरी
teri bhanwon ki tegh ke jo ru-ba-ru hua

ग़ज़ल

तेरी भँवों की तेग़ के जो रू-ब-रू हुआ

सिराज औरंगाबादी

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तेरी भँवों की तेग़ के जो रू-ब-रू हुआ
सब आशिक़ों की सफ़ में वो ही सुर्ख़-रू हुआ

तुझ ज़ुल्फ़ के ख़याल सीं क्यूँकर निकल सकूँ
हर पेच-ओ-ख़म नमूना-ए-तौक़-ए-गुलू हुआ

तेरे निगह का तीर है अज़-बस-के मूशिगाफ़
ममनूँ हर एक ज़ख़्म सीं मैं हू-ब-हू हुआ

रिश्ते सीं मौज-ए-गुल की हवा-ए-बहार में
सब बुलबुलों का चाक-गरेबाँ रफ़ू हुआ

सूरज का रंग चाँद सिरी का हुआ सफ़ेद
जिस सुब्ह कूँ सवार वो ख़ुर्शीद-रू हुआ

जिस की ज़बाँ में इश्क़ के अफ़्सूँ का है असर
हर हर्फ़ उस का मौज-ए-परी हू-ब-हू हुआ

बरजा है गर कहूँ मैं उसे शीशा आतिशी
चश्म-ए-'सिराज' आईना-ए-शो'ला-रू हुआ