तेरे साथ चलती हूँ इक जहान जाता है
गर गुरेज़ करती हूँ तेरा मान जाता है
दर्द के हवाले से कितना बा-ख़बर है वो
मेरे दिल की बातों को कैसे जान जाता है
धूप ही तो मिलती है ज़र्द ज़र्द मौसम में
वहशतों के सहरा में साएबान जाता है
ख़ाक-ए-दिल तुझे ले कर अब कहाँ कहाँ जाऊँ
गर ज़मीं की होती हूँ आसमान जाता है
हिज्र के समुंदर से मैं गुज़र के आई हूँ
तेरे अब न मिलने से मेरा मान जाता है
जब रविश पे चलती हूँ मैं अदा-ए-वहशत की
फूल रूठ जाते हैं गुल्सितान जाता है
बज़्म में उसे 'रूमी' जब भी दफ़अ'तन देखूँ
ज़ब्त ही नहीं दिल से हर गुमान जाता है

ग़ज़ल
तेरे साथ चलती हूँ इक जहान जाता है
रूमाना रूमी