तेरे कूचे की हुआ लग गई शायद उस को
रोज़ बे-पर की उड़ाता है कबूतर हम से
हम सुलैमान बनेंगे जो परी होगे तुम
होश में आओ कहाँ जाओगे उड़ कर हम से
गालियाँ कौन सुने जब न रहा कुछ मतलब
आज से कीजिएगा बात समझ कर हम से
हम किसी और को ताकेंगे तुम्हारे होते
क्या कहा फिर तो कहो आँख मिला कर हम से
आप हो जाएँगे सीधे कहीं दिन हों सीधे
वो भी टेढ़े हैं जो टेढ़ा है मुक़द्दर हम से
वो भी क्या दिन थे कि जब रहती थीं नीची नज़रें
चार आँखें जो हुईं फिर गए तेवर हम से
ग़ज़ल
तेरे कूचे की हुआ लग गई शायद उस को
लाला माधव राम जौहर

