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तेरे खोने का किस क़दर ग़म है | शाही शायरी
tere khone ka kis qadar gham hai

ग़ज़ल

तेरे खोने का किस क़दर ग़म है

मसऊद हुसैन ख़ां

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तेरे खोने का किस क़दर ग़म है
आज आलम तमाम मुबहम है

देखता हूँ नज़र नहीं आता
कैसा नैरंग चश्म-ए-पुर-नम है

दर्द ठहरा हुआ सा है दिल में
सोज़िश-ए-ग़म भी आज कम कम है

कितनी वीरानियाँ हैं आँखों में
कितना पैरों में रक़्स-ए-पैहम है

दीदा-ओ-दिल बुझे से जाते हैं
कैसी ग़मनाक शाम-ए-मातम है

तुम ने 'मसऊद' को भी देखा है
वो तो अफ़्सुर्दगी मुजस्सम है