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तेरे होंठों के तबस्सुम का तलबगार हूँ मैं | शाही शायरी
tere honThon ke tabassum ka talabgar hun main

ग़ज़ल

तेरे होंठों के तबस्सुम का तलबगार हूँ मैं

महशर आफ़रीदी

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तेरे होंठों के तबस्सुम का तलबगार हूँ मैं
अपने ग़म बेच दे रद्दी का ख़रीदार हूँ मैं

मेरी हालत पे तकब्बुर नहीं अफ़्सोस भी कर
तेरा आशिक़ नहीं जानाँ तिरा बीमार हूँ मैं

कल तिरी होश-रुबाई से हुआ था आज़ाद
आज फिर इक नए जादू में गिरफ़्तार हूँ मैं

इन दिनों यूँ कि तिरा इश्क़ गराँ है मुझ पर
बे-दिली ऐसी के अपने से ही बेज़ार हूँ मैं

मेरे हर ग़म की किफ़ालत भी मिरा ज़िम्मा है
अपने ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती का अज़ादार हूँ मैं

हँसते हँसते मिरी आँखों में नमी आ गई है
तू ने देखा नहीं किस दर्जा अदाकार हूँ मैं