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तेरा ये हुस्न-ए-बे-कराँ मुक़य्यद ज़मान है | शाही शायरी
tera ye husn-e-be-karan muqayyad zaman hai

ग़ज़ल

तेरा ये हुस्न-ए-बे-कराँ मुक़य्यद ज़मान है

सय्यद तम्जीद हैदर तम्जीद

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तेरा ये हुस्न-ए-बे-कराँ मुक़य्यद ज़मान है
मगर तुझे ऐ ज़िंदगी कहाँ कोई गुमान है

निशान खो गया में अपने आप अपने आप का
जहाँ कोई हो बे-निशाँ वहीं मेरा निशान है

न देख ऐ इस इस तराश-तीर को
ज़रा ये देख आ कि किस के हाथ में कमान है

ये दावत-ए-जिहाद बे-महल नहीं है ऐ ज़मीं
किसी फ़क़ीर बे-हुनर का आख़िरी बयान है

मैं रहरव-ए-सिरात-ए-राहज़न था थोड़ी देर को
समझ रहा था मैं मेरी न आँख है न कान है

मेरी नवा-ए-अमन बे-नवा नहीं है ऐ फ़लक
अभी भी जिस्म-ए-ना-तावाँ में बोलने की जान है

सफ़ों में सामईन के जो तो भी आ गया तो सुन
तेरी बिसात-ए-जुस्तुजू का आज इम्तिहान है