तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर
आँखों पे आँखें रख तो कि कर लूँ मैं अपनी सैर
ख़ुद पर हमारे जिस्म की चादर ही डाल ले
बच आप अपनी धूप से तेरे बदन की ख़ैर
काबे के सारे बुत मिरे सीने में आ बसे
इस आशिक़ी में सारा हरम हो गया है दैर
जीना तिरे बग़ैर नहीं आ सका अभी
मरना तो मैं ने सीख लिया है तिरे बग़ैर
तब दाख़िला मिलेगा तुझे दश्त-ए-हुस्न में
जब अहल-ए-शहर कहने लगें तुझ को ग़ैर ग़ैर
'एहसास-जी' के हल्क़ा-ए-ग़ुर्बत में आ रहो
करनी अगर हो अपने हक़ीक़ी वतन की सैर
ग़ज़ल
तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर
फ़रहत एहसास