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तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर | शाही शायरी
tera bhala ho tu jo samajhta hai mujhko ghair

ग़ज़ल

तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर

फ़रहत एहसास

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तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर
आँखों पे आँखें रख तो कि कर लूँ मैं अपनी सैर

ख़ुद पर हमारे जिस्म की चादर ही डाल ले
बच आप अपनी धूप से तेरे बदन की ख़ैर

काबे के सारे बुत मिरे सीने में आ बसे
इस आशिक़ी में सारा हरम हो गया है दैर

जीना तिरे बग़ैर नहीं आ सका अभी
मरना तो मैं ने सीख लिया है तिरे बग़ैर

तब दाख़िला मिलेगा तुझे दश्त-ए-हुस्न में
जब अहल-ए-शहर कहने लगें तुझ को ग़ैर ग़ैर

'एहसास-जी' के हल्क़ा-ए-ग़ुर्बत में आ रहो
करनी अगर हो अपने हक़ीक़ी वतन की सैर