तेग़-ए-जफ़ा को तेरी नहीं इम्तिहाँ से रब्त
मेरी सुबुक-सरी को है बार-ए-गराँ से रब्त
दुनिया को हम से काम न दुनिया से हम को काम
ख़ातिर से तेरी रखते हैं सारे-जहाँ से रब्त
उड़ते ही गर्द जाती है जो सू-ए-आसमाँ
है कुछ न कुछ ज़मीन को भी आसमाँ से रब्त
इज़हार-ए-हाल के लिए सूरत सवाल है
है गुफ़्तुगू से काम न हम को ज़बाँ से रब्त
चश्मे की तरह रहती हैं जारी मुदाम ये
आँखों को हो गया है जो आब-ए-रवाँ से रब्त
बे-रब्तियों ने 'क़द्र' मिटाई जो रब्त की
है गोश्त को भी अपने न अब उस्तुख़्वाँ से रब्त
ग़ज़ल
तेग़-ए-जफ़ा को तेरी नहीं इम्तिहाँ से रब्त
अबू ज़ाहिद सय्यद यहया हुसैनी क़द्र