EN اردو
तस्बीह से ग़रज़ है न ज़ुन्नार से ग़रज़ | शाही शायरी
tasbih se gharaz hai na zunnar se gharaz

ग़ज़ल

तस्बीह से ग़रज़ है न ज़ुन्नार से ग़रज़

मिस्कीन शाह

;

तस्बीह से ग़रज़ है न ज़ुन्नार से ग़रज़
दिल को फ़क़त है यार के दीदार से ग़रज़

इस्लाम ओ कुफ़्र से तो यहाँ कुछ नहीं हुसूल
हम को नहीं है काफ़िर ओ दीं-दार से ग़रज़

ख़ुल्द-ए-बरीं से काम न तौबा की छाँव से
हम को है तेरे साया-ए-दीवार से ग़रज़

आया हूँ सैर को तिरे दीदार के लिए
ज़ाहिद से कुछ ग़रज़ है न मय-ख़्वार से ग़रज़

'मिस्कीं' सुनोगे तुम कि तह-ए-दाम मर गया
रखता था दिल जो मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से ग़रज़