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तस्बीह-ए-कुमरी सर्व-ए-सनोबर समेट लो | शाही शायरी
tasbih-e-qumri sarw-e-sanobar sameT lo

ग़ज़ल

तस्बीह-ए-कुमरी सर्व-ए-सनोबर समेट लो

अज़हर हाश्मी

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तस्बीह-ए-कुमरी सर्व-ए-सनोबर समेट लो
जाना है इस दयार से मंज़र समेट लो

पर्वाज़-ए-कामयाबी की बस इतनी शर्त है
चाहत हिसार-ए-नफ़स के अंदर समेट लो

उस अश्क की तड़प के मुक़ाबिल में कुछ नहीं
अब चाहे चश्म-ए-नम में समुंदर समेट लो

ताक़त पे पहले अपनी तो राज़ी ख़ुदा करो
फिर बाज़ूओं में तुम दर-ए-ख़ैबर समेट लो

मेरा मकाँ नहीं है ख़ता-बीं के वास्ते
आओ मगर मिज़ाज को बाहर समेट लो

'अज़हर' ये दौर-ए-ऐश है याँ जीने के लिए
आज़ुर्दा ज़ेहन और दिल-ए-मुज़्तर समेट लो