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तसव्वुर मुन्कशिफ़-अज़-बाम हो जाने से डरता हूँ | शाही शायरी
tasawwur munkashif-az-baam ho jaane se Darta hun

ग़ज़ल

तसव्वुर मुन्कशिफ़-अज़-बाम हो जाने से डरता हूँ

अली मुज़म्मिल

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तसव्वुर मुन्कशिफ़-अज़-बाम हो जाने से डरता हूँ
अता-ए-कश्फ़ के इत्माम हो जाने से डरता हूँ

ज़मीन-ओ-अर्श के बाहम तअ'ल्लुक़ के तनाज़ुर में
ज़मीन-ओ-अर्श का इदग़ाम हो जाने से डरता हूँ

कभी सब कर गुज़रने का जुनूँ बेचैन रखता है
कभी यूँ भी हुआ सब काम हो जाने से डरता हूँ

मोहब्बत इर्तिबात-ए-क़ल्ब से मशरूत होती है
यक़ीन-ओ-रब्त के इबहाम हो जाने से डरता हूँ

कहाँ मुझ को मयस्सर मिस्र का बाज़ार आएगा
ख़ुद अपनी ज़ात में नीलाम हो जाने से डरता हूँ

'अली' बहर-ए-मोहब्बत का शनावर हूँ ख़ुदा शाहिद
वफ़ा के नाम पे इल्ज़ाम हो जाने से डरता हूँ