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तसव्वुर में जमाल-ए-रू-ए-ताबाँ ले के चलता हूँ | शाही शायरी
tasawwur mein jamal-e-ru-e-taban le ke chalta hun

ग़ज़ल

तसव्वुर में जमाल-ए-रू-ए-ताबाँ ले के चलता हूँ

फ़ितरत अंसारी

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तसव्वुर में जमाल-ए-रू-ए-ताबाँ ले के चलता हूँ
अँधेरी राह में शम-ए-फ़रोज़ाँ ले के चलता हूँ

शिकस्ता-दिल हुजूम-ए-यास-ओ-हिर्मां ले के चलता हूँ
हुज़ूर-ए-हुस्न मैं ये साज़-ओ-सामाँ ले के चलता हूँ

उन्हें शायद यक़ीं आ जाए अब मेरी मोहब्बत का
मैं उन के रू-ब-रू चाक-ए-गरेबाँ ले के चलता हूँ

तुम्हारी याद हर इक गाम पर मुझ को रुलाती है
अगर दिल में कभी जीने का अरमाँ ले के चलता हूँ

टपकता है लहू एहसास के रंगीं दरीचों से
मैं अपने दिल में जब याद-ए-शहीदाँ ले के चलता हूँ

उसे शायद मिरी मासूमियत पर रहम आ जाए
ख़ुदा के सामने मैं फ़र्द-ए-इस्याँ ले के चलता हूँ

मुझे भी अपने एहसास-ए-वफ़ा को आज़माना है
ब-ज़ोम-इश्क़ अफ़्कार-ए-परेशाँ ले के चलता हूँ

मिरी ख़ुद्दार 'फ़ितरत' की ख़ुदा ही आबरू रक्खे
ख़िज़ाँ के दौर में अज़्म-ए-बहाराँ ले के चलता हूँ