तर्ज़ जीने के सिखाती है मुझे
तिश्नगी ज़हर पिलाती है मुझे
रात भर रहती है किस बात की धुन
न जगाती न सुलाती है मुझे
आईना देखूँ तो क्यूँकर देखूँ
याद इक शख़्स की आती है मुझे
बंद करता हूँ जो आँखें क्या क्या
रौशनी सी नज़र आती है मुझे
कोई मिल जाए तो रस्ता कट जाए
अपनी परछाईं डराती है मुझे
अब तो ये भूल गया किस की तलब
देस परदेस फिराती है मुझे
ग़ज़ल
तर्ज़ जीने के सुखाती है मुझे
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

