तर्ज़-ए-इज़हार में कोई तो नया-पन होता
दर्द रंगीन बदन शीशे का बर्तन होता
किस लिए रोज़ बदलता हूँ मैं मल्बूस नया
ऐसा कच्चा तो न उस नक़्श का रोग़न होता
पैर कमरे से निकाले तो मैं बाज़ार में था
है ये हसरत कि मिरे घर का भी आँगन होता
आँच मिल जाती जो कुछ और तो जौहर खुलते
तुम जिसे राख समझते हो वो कुंदन होता
कुछ ज़मीं की है ये तासीर कि चेहरे हैं हसीं
शहर गर शहर न होता कोई गुलशन होता
मैं भटकता न कभी रात की तारीकी में
ऐसे सुनसान में घर था तो वो रौशन होता

ग़ज़ल
तर्ज़-ए-इज़हार में कोई तो नया-पन होता
सलीम शाहिद