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तरवार खींच हम को दिखाते हो जब न तब | शाही शायरी
tarwar khinch hum ko dikhate ho jab na tab

ग़ज़ल

तरवार खींच हम को दिखाते हो जब न तब

वलीउल्लाह मुहिब

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तरवार खींच हम को दिखाते हो जब न तब
क्या मर रहे जवाँ को सताते हो जब न तब

तक़्सीर हम से कौन सी ऐसी हुई वक़ूअ'
मुँह पर जो हाथ मेरे धिराते हो जब न तब

अज़-बस मिज़ाज हम से तुम्हारा कशीदा है
आज़ुर्दा बात में हुए जाते हो जब न तब

अब तो रखा है काट हमारा ये आप ने
ग़ैरों से मिल पतंग उड़ाते हो जब न तब

इक बात का हमारी बतंगड़ बनाते हो
सौ झूट सच को अपने छुपाते हो जब न तब

ऐ वाइ'ज़ो ये क्या तुम्हें बकवास लग गई
मेरी सुनो तुम अपनी ही गाते हो जब न तब

हम दर्द-ए-दिल कहें तो जवाब इस मज़े से दो
क़िस्सा 'मुहिब' ये किस को सुनाते हो जब न तब