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तर्क शौक़-ए-शराब क्या करते | शाही शायरी
tark shauq-e-sharab kya karte

ग़ज़ल

तर्क शौक़-ए-शराब क्या करते

सय्यद मोहम्मद ज़फ़र अशक संभली

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तर्क शौक़-ए-शराब क्या करते
ज़िंदगी को ख़राब क्या करते

जब्र ज़ौक़-ए-नज़र पे करते रहे
हुस्न को बे-हिजाब क्या करते

जब थी बदली हुई नज़र उन की
फिर सवाल-ओ-जवाब क्या करते

है ब-हर-शक्ल एक ही जल्वा
हम कोई इंतिख़ाब क्या करते

गर बसाते न जा के वीराना
और ख़ाना-ख़राब क्या करते

बात का रुख़ बदल दिया आख़िर
हम उन्हें ला-जवाब क्या करते

दिल था एहसास-मंद पहलू में
हुस्न से इज्तिनाब क्या करते

ज़ेहनियत अपनी जो बदल न सकें
'अश्क' वो इंक़लाब क्या करते