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तर्क-ए-उल्फ़त का कुछ ख़याल भी है | शाही शायरी
tark-e-ulfat ka kuchh KHayal bhi hai

ग़ज़ल

तर्क-ए-उल्फ़त का कुछ ख़याल भी है

क़ाज़ी हबीबुर्रहमान

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तर्क-ए-उल्फ़त का कुछ ख़याल भी है
यही मुमकिन मगर मुहाल भी है

क्या खुले उक़्दा-ए-हयात-ओ-ममात
हर जवाब इक नया सवाल भी है

वर्ना क्या शय ये गर्दिश-ए-अफ़्लाक
इस में शामिल किसी की चाल भी है

कुछ मिरा दिल भी है जुनूँ-आसार
कुछ तिरी आँख का कमाल भी है

इस में जीने का भी हज़ार इम्कान
इस में मरने का एहतिमाल भी है

दिल भी है अंदरून-ए-सीना अज़ाब
सर सर-ए-दोश इक वबाल भी है

हर नज़र सूरतों का एक तिलिस्म
हर क़दम ख़्वाहिशों का जाल भी है

हर ख़बर इन्किशाफ़-ए-बे-ख़बरी
हर नफ़स अर्सा-ए-ज़वाल भी है

तुझ से दूरी भी है नशात-अफ़्ज़ा
तेरी क़ुर्बत में इक मलाल भी है

सूरत-ए-सब्ज़ा आरज़ू-ए-विसाल
सर-कशीदा भी पाएमाल भी है

किन तज़ादात में घिरा हूँ 'हबीब'
ज़िंदगी हिज्र भी विसाल भी है