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तर्क-ए-उल्फ़त का इरादा भी नहीं | शाही शायरी
tark-e-ulfat ka irada bhi nahin

ग़ज़ल

तर्क-ए-उल्फ़त का इरादा भी नहीं

महेर चंद काैसर

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तर्क-ए-उल्फ़त का इरादा भी नहीं
उन से इज़हार तमन्ना भी नहीं

वक़्त कटता ही न था जिस के बग़ैर
उस को मुद्दत हुई देखा भी नहीं

जैसी गुज़री है ग़नीमत है मगर
ज़िंदगी तेरा भरोसा भी नहीं

दिल में रखता है बहुत कुछ लेकिन
बात कहने की वो कहता भी नहीं

ख़ूब सज-धज है तुम्हारी फिर भी
देखना कैसा वो तकता भी नहीं

घूर कर देखता रहता है मुझे
मैं ने उस को कभी देखा भी नहीं

बातें करता है मुसलसल 'कौसर'
रोज़ मिलता है शनासा भी नहीं