तर्क-ए-तअल्लुक़ात पे रोया न तू न मैं
लेकिन ये क्या कि चैन से सोया न तू न मैं
हालात के तिलिस्म ने पथरा दिया मगर
बीते समों की याद में खोया न तू न मैं
हर चंद इख़्तिलाफ़ के पहलू हज़ार थे
वा कर सका मगर लब-ए-गोया न तू न मैं
नौहे फ़सील-ए-ज़ब्त से ऊँचे न हो सके
खुल कर दयार-ए-संग में रोया न तू न मैं
जब भी नज़र उठी तो फ़लक की तरफ़ उठी
बर-गश्ता आसमान से गोया न तू न मैं
ग़ज़ल
तर्क-ए-तअल्लुक़ात पे रोया न तू न मैं
ख़ालिद अहमद