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तर्क-ए-लज़्ज़ात पे माइल जो ब-ज़ाहिर है मिज़ाज | शाही शायरी
tark-e-lazzat pe mail jo ba-zahir hai mizaj

ग़ज़ल

तर्क-ए-लज़्ज़ात पे माइल जो ब-ज़ाहिर है मिज़ाज

शौक़ बहराइची

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तर्क-ए-लज़्ज़ात पे माइल जो ब-ज़ाहिर है मिज़ाज
आज तो बगुला-भगत जैसे बने हैं महराज

हुस्न-ए-मग़रूर ओ सियह-फ़ाम का कैसे हो इलाज
शक्ल-ओ-सूरत तो चुड़ेलों की है परियों के मिज़ाज

छोड़ आए हरम-ए-पाक में जिंस-ए-ईमाँ
लाद कर ला न सके जब कि वतन तक हुज्जाज

ऐसे भी बानी-ए-बे-दाद हैं कुछ दुनिया में
फ़लक-ए-पीर भी देता है जिन्हें झुक के ख़िराज

हुस्न की जितनी ज़मीं होती है ना-क़ाबिल-ए-काश्त
इश्क़ पैदा किया करता है सदा सब में अनाज

सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है माल-ओ-ज़र-ओ-सीम
हैं मगर अहल-ए-दुवल अक़्ल-ओ-ख़िरद के मुहताज

इस के आईन नहीं अब जो अमल के क़ाबिल
तो इसे कर दो रिटाइर कि पुराना है समाज

जब कभी लोग तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ते हैं
टाँग उड़ा देते हैं कम्बख़्त यही रस्म-ओ-रिवाज

हाए क्या पूछते हो मुर्दा दिलों का अहवाल
मियाँ ज़िंदा हैं मगर बेवा हैं उन की आज़वाज

ना-ख़ुदाई किया करता है तलातुम ख़ुद ही
खेती हैं आप ही आ कर मिरी कश्ती अमवाज

चैन से शैख़-ए-हरम उम्र बसर करते हैं
रुपया बैंक में है मिलता है माहाना ब्याज

काग उड़ उड़ के ये बोतल के सदा देते हैं
नश्शा-बंदी की सुना है कोई मीटिंग है आज

अब तू जो चाहे करे इश्क़-ए-वतन में ऐ 'शौक़'
हुस्न कुछ बोल नहीं सकता है दे कर सौराज