तर्क-ए-जाम-ओ-सुबू न कर पाए
इस लिए हम वज़ू न कर पाए
वक़्त-ए-आख़िर भी हज़रत-ए-नासेह
अपना मुँह क़िबला-रू न कर पाए
उस की रहमत के साएबान में था
मेरा शक भी अदू न कर पाए
मस्लहत की खड़ी थी जो दीवार
दूर उस को कभू न कर पाए
उम्र भर दूसरों की फ़िक्र रही
अपना दामन रफ़ू न कर पाए
हाए मजबूरियाँ कि उस के हुज़ूर
पेश अपना लहू न कर पाए
कर ली कमरे में ख़ुद-कुशी 'आजिज़'
उस से जब गुफ़्तुगू न कर पाए

ग़ज़ल
तर्क-ए-जाम-ओ-सुबू न कर पाए
लईक़ आजिज़