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तर्क-ए-जाम-ओ-सुबू न कर पाए | शाही शायरी
tark-e-jam-o-subu na kar pae

ग़ज़ल

तर्क-ए-जाम-ओ-सुबू न कर पाए

लईक़ आजिज़

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तर्क-ए-जाम-ओ-सुबू न कर पाए
इस लिए हम वज़ू न कर पाए

वक़्त-ए-आख़िर भी हज़रत-ए-नासेह
अपना मुँह क़िबला-रू न कर पाए

उस की रहमत के साएबान में था
मेरा शक भी अदू न कर पाए

मस्लहत की खड़ी थी जो दीवार
दूर उस को कभू न कर पाए

उम्र भर दूसरों की फ़िक्र रही
अपना दामन रफ़ू न कर पाए

हाए मजबूरियाँ कि उस के हुज़ूर
पेश अपना लहू न कर पाए

कर ली कमरे में ख़ुद-कुशी 'आजिज़'
उस से जब गुफ़्तुगू न कर पाए