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तरीक़त में अगर ज़ाहिद मुझे गुमराह जाने है | शाही शायरी
tariqat mein agar zahid mujhe gumrah jaane hai

ग़ज़ल

तरीक़त में अगर ज़ाहिद मुझे गुमराह जाने है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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तरीक़त में अगर ज़ाहिद मुझे गुमराह जाने है
मिरे दिल की हक़ीक़त को मिरा अल्लाह जाने है

वो बे-परवा मिरा कब इम्तियाज़-ए-चाह जाने है
मिरी हालत को दिल और दिल की हालत आह जाने है

उसे जो देखता है दिन को सो ख़ुर्शीद जाने है
जो घर से रात को निकले तो आलम माह जाने है

हमारी बात को वो आक़िबत-ना-फ़हम क्या माने
जो बद-ख़्वाहों को अपने अपना दौलत-ख़्वाह जाने है

मिरा दिल बार-ए-इश्क़ ऐसा उठाने में दिलावर है
जो उस के कोह दूँ सर पर तो उस को काह जाने है

हमें दैर ओ हरम शैख़ ओ बरहमन से नहीं मतलब
हमारा दिल तो अपने दिल को बैतुल्लाह जाने है

वो वहशी इस क़दर भड़का है सूरत से मिरे यारो
कि अपने देख साए को मुझे हमराह जाने है

कहें हम बहर-ए-बे-पायान-ए-ग़म की माहियत किस से
न लहरों से कोई वाक़िफ़ न कोई थाह जाने है

ख़ुदा के वास्ते इंसाफ़ कीजो क्या तमाशा है
मैं उस का ख़ैर-ख़्वाह और वो मुझे बद-ख़्वाह जाने है

अगर वो फ़ित्ना जो तुझ से मिले 'हातिम' तो कह दीजो
कि मंसूबे तिरे सब बंदा-ए-दरगाह जाने है