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तरीक़-ए-इश्क़ में देखा है क्या कहें क्यूँ-कर | शाही शायरी
tariq-e-ishq mein dekha hai kya kahen kyun-kar

ग़ज़ल

तरीक़-ए-इश्क़ में देखा है क्या कहें क्यूँ-कर

कैफ़ी हैदराबादी

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तरीक़-ए-इश्क़ में देखा है क्या कहें क्यूँ-कर
हमारी आँख खुली है मक़ाम-ए-हैरत में

अगर ख़लल है तो ज़ाहिद मिरे दिमाग़ में है
हज़ार शुक्र नहीं है फ़ुतूर निय्यत में

बुलंद ओ पस्त की उस के कुछ इंतिहा ही नहीं
अजीब चीज़ है इंसान भी हक़ीक़त में

ये बज़्म-ए-ग़ैर है 'कैफ़ी' किधर गए हैं हवास
कहाँ तुम आ गए क्या आ गई तबीअत में