तरीक़-ए-इश्क़ में बर्बाद होना पड़ता है
गुलों की चाह में काँटों पे सोना पड़ता है
बस एक लम्हा-ए-राज़-ओ-नियाज़ की ख़ातिर
बशर को मुद्दतों छुप-छुप के रोना पड़ता है
ज़मीर बेच के मंसब तो मिल ही जाएगा
वक़ार पहले मगर इस में खोना पड़ता है
है बद-लिहाज़ ये दुनिया कोई कहाँ जाए
क़दम क़दम पे यहाँ ख़्वार होना पड़ता है
ये फ़ाक़ा-कश कि जिन्हें हैफ़ ख़ुद-फ़रेबी में
शिकम की सेरी को पानी बिलोना पड़ता है
मुआ'शरे का हो नासूर या बदन का घाव
इलाज के लिए नश्तर चुभोना पड़ता है
पसारे हाथ तो फिरते हो माल-ओ-ज़र के लिए
बिल-आख़िर उन से मगर हाथ धोना पड़ता है
पराए दर्द में होता नहीं शरीक कोई
ग़मों के बोझ को ख़ुद आप ढोना पड़ता है
ये सच है 'चाँद' शगुफ़्ता ग़ज़ल जो कहनी हो
क़लम को ख़ून-ए-जिगर में डुबोना पड़ता है
ग़ज़ल
तरीक़-ए-इश्क़ में बर्बाद होना पड़ता है
महेंद्र प्रताप चाँद