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तरब-आफ़रीं है कितना सर-ए-शाम ये नज़ारा | शाही शायरी
tarab-afrin hai kitna sar-e-sham ye nazara

ग़ज़ल

तरब-आफ़रीं है कितना सर-ए-शाम ये नज़ारा

सलाम संदेलवी

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तरब-आफ़रीं है कितना सर-ए-शाम ये नज़ारा
तिरे होंट पर शफ़क़ है मिरी आँख में सितारा

किया मैं ने जब किसी के रुख़-ओ-ज़ुल्फ़ से किनारा
कभी सुब्ह ने सदा दी कभी शाम ने पुकारा

गुल-ओ-ग़ुन्चा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
कभी खुल के बात कह दी कभी कर दिया इशारा

तिरा नाम ले के जागे तुझे याद कर के सोए
यूँ ही सारी उम्र काटी यूँ ही कर लिया गुज़ारा

तुझे बाग़बाँ है ख़तरा उसी बर्क़ की चमक से
कभी तू ने ये न सोचा कि है गुल भी इक शरारा

ये अदम वजूद क्या है तिरा नाज़ है मुसव्विर
किसी नक़्श को मिटाया किसी नक़्श को उभारा

भला हम 'सलाम' आख़िर न असीर होंगे कब तक
कि जहाँ है दाम उन का वहीं आशियाँ हमारा